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परदेसी…!

                    परदेसी…!

कैद करलू घर में ही खुद को,
मुझे तुझसे दुर रहना है,
मोत का डर नहीं;
मुझे देश को बचाना हैं…!
जी लूंगा जिंदगी ,
फिर कभी!
आज बस् जिंदा रहना हैं..!
 मिल जाये दो वक्त की रोटी ,
मैं खुश हूँ !
एक आखरी बार बस्
घरवालों से मिलना हैं…!
चलो कोई बात नही,
बडे दिनो से ,
कोई घरवालों से बात नहीं हुई
 बस वो भी जिंदा हैं
या नहीं बस ये पता नहीं…!
 मेरे हिस्सों मे से,
एक रोटी ऊनको दो !
आँखो में से बहती हैं गंगा,
उसे आँखो में ही रहने दो…!
चला जाउंगा पैदल घर तक !
कोई बात नहीं;
मैं तुम्हारे गाँव में आया,
ऐ अगर मेरा गुनाह हैं ?
तो मुझे
तुम्हारे गाँव आने की ,
 हर एक वो सजा दो;
अगर जाते जाते
मर गया बिच में,
तो खबर घरवालों को बता दो…!
काम कि चींता मत करो साब
जिंदा रहूंगा तो फिर आऊंगा;
आप फिर से निकाल दो !
जो कहते हैं परदेसी,
कहने दो,
मुझे भारतीय बनके मरने दो…!
                       – विनायक इनामदार
                    

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